
#जयंती_विशेषांक : भारतीय भाषाविज्ञान, संस्कृति और स्वदेशी ज्ञान-परंपरा के महान आचार्य रघुवीर का स्मरण
- आचार्य रघुवीर भारतीय भाषाविज्ञान की उस परंपरा के प्रतिनिधि थे, जिसने भाषा को सभ्यता और राष्ट्रीय चेतना का आधार माना।
- उन्होंने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय भाषाओं का गहन अध्ययन किया।
- तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषाविज्ञान में उनका मौलिक योगदान रहा।
- कोश-विज्ञान, भाषा और संस्कृति के संबंध पर उनका चिंतन अत्यंत महत्वपूर्ण है।
- वैदिक ग्रंथों और वाल्मीकि रामायण के संपादन में उनका योगदान ऐतिहासिक माना जाता है।
भारतीय भाषाविज्ञान के इतिहास में आचार्य रघुवीर का नाम उस विद्वान परंपरा का प्रतिनिधि है, जिसने भाषा को केवल व्याकरण या शब्द-संरचना तक सीमित नहीं माना, बल्कि उसे सभ्यता, संस्कृति और राष्ट्रीय चेतना का जीवंत आधार समझा। उनकी जयंती पर उन्हें स्मरण करना, वस्तुतः भारतीय भाषाओं की आत्मा और स्वदेशी ज्ञान-परंपरा को पुनः पहचानना है।
आचार्य रघुवीर का जन्म 1902 में हुआ। प्रारम्भ से ही उनकी रुचि भाषा, इतिहास और संस्कृति में रही। उन्होंने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा आधुनिक भारतीय भाषाओं का गहन अध्ययन किया। पाश्चात्य भाषाविज्ञान की आधुनिक पद्धतियों से वे भली-भाँति परिचित थे, किंतु उनका दृष्टिकोण अनुकरणवादी नहीं, समन्वयवादी था। वे मानते थे कि भारतीय भाषाओं को समझने के लिए भारतीय परंपरा की दृष्टि अनिवार्य है।
भाषाविज्ञान में मौलिक योगदान
आचार्य रघुवीर का प्रमुख योगदान तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के क्षेत्र में माना जाता है। उन्होंने भाषा-विकास की प्रक्रिया को ध्वनि-परिवर्तन, शब्द-व्युत्पत्ति और अर्थ-विस्तार के संदर्भ में स्पष्ट किया। उनकी विशेषता यह थी कि वे भाषाओं को अलग-थलग नहीं देखते थे, बल्कि भारतीय भाषाओं के आपसी संबंधों और साझा सांस्कृतिक आधार पर प्रकाश डालते थे। उनके अनुसार, भारत की भाषाई विविधता कोई कमजोरी नहीं, बल्कि उसकी सबसे बड़ी शक्ति है।
कोश-विज्ञान और शब्द-दृष्टि
आचार्य रघुवीर का कोश-विज्ञान संबंधी कार्य उन्हें अन्य विद्वानों से अलग करता है। वे शब्द को केवल अर्थ बताने वाली इकाई नहीं मानते थे, बल्कि उसे इतिहास और लोकजीवन का वाहक समझते थे। उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि किसी भी भाषा का समृद्ध कोश उस समाज की बौद्धिक उन्नति का दर्पण होता है। तकनीकी, वैज्ञानिक और दार्शनिक क्षेत्रों में भारतीय भाषाओं की सशक्त शब्दावली विकसित करने की आवश्यकता पर उन्होंने विशेष बल दिया।
भाषा और संस्कृति का अविच्छेद्य संबंध
आचार्य रघुवीर के चिंतन में भाषा और संस्कृति एक-दूसरे से अलग नहीं हैं। उनका स्पष्ट मत था कि भाषा के क्षरण का अर्थ संस्कृति का क्षरण है। उन्होंने लोकभाषाओं और बोलियों के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि यहीं से किसी समाज की वास्तविक चेतना प्रकट होती है। उनके लेखन में लोकबोध, परंपरा और आधुनिकता का सुंदर समन्वय दिखाई देता है।
लेखन-शैली और कृतित्व
आचार्य रघुवीर की लेखन-शैली विद्वतापूर्ण होते हुए भी सरल और संवादात्मक थी। वे कठिन विषयों को भी सहज उदाहरणों के माध्यम से स्पष्ट कर देते थे। उनके ग्रंथ और निबंध आज भी भाषाविज्ञान, हिंदी और भारतीय संस्कृति के विद्यार्थियों के लिए मानक संदर्भ माने जाते हैं।
राष्ट्रीय दृष्टि
राष्ट्र-निर्माण के संदर्भ में आचार्य रघुवीर का दृष्टिकोण अत्यंत व्यापक था। वे मानते थे कि भारत की आत्मा उसकी भाषाओं में बसती है। इसलिए उन्होंने भारतीय भाषाओं को शिक्षा, प्रशासन और ज्ञान-विज्ञान का माध्यम बनाने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। उनके विचार आज भी राष्ट्रीय शिक्षा नीति और भाषाई आत्मनिर्भरता की बहस में प्रासंगिक हैं।
समकालीन महत्व
आज, जब वैश्वीकरण और बाज़ारवाद के दबाव में अनेक भारतीय भाषाएँ संकट का सामना कर रही हैं, आचार्य रघुवीर की सोच हमें स्वदेशी भाषाई चेतना की ओर लौटने का मार्ग दिखाती है। उनका जीवन और कार्य यह सिखाता है कि भाषा की रक्षा केवल भावनात्मक आग्रह से नहीं, बल्कि गंभीर अध्ययन, सृजन और व्यवहारिक प्रयोग से होती है।
वैदिक ग्रन्थों के सम्पादक और प्रकाशक
आचार्य रघुवीर ने वैदिक वाङ्मय के सम्बन्ध में न केवल अनेक गवेषणात्मक निबन्ध लिखे, अपितु अनेक वैदिक ग्रन्थों का संग्रह, सम्पादन और प्रकाशन भी किया। आचार्य रघुवीर के सम्पादकत्व में ‘सरस्वती विहार’ और अन्य संस्थानों से कृष्णयजुर्वेदीयकपिष्ठलकठसंहिता (1932), वाराहगृह्यसूत्र (1932), अथर्ववेद (1936), सामवेदीया जैमिनीयसंहिता (1938), शतपथब्राह्मण (1939), जैमिनीयब्राह्मणम् (1950) जैसे अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। हॉलैण्ड की यूत्रेख्त यूनिवर्सिटी ने आचार्य रघुवीर द्वारा सम्पादित वाराहगृह्यसूत्र की सौ प्रतियाँ खरीदी थीं।
वाल्मीकीयरामायण का सम्पादन
सन् 1936 में आचार्य रघुवीर ने वाल्मीकीयरामायण का एक महत्त्वपूर्ण संस्करण प्रकाशित करने की योजना बनायी। इसके लिए उन्होंने काश्मीर से मालाबार तक विभिन्न लिपियों में उपलब्ध रामायण की 30 पाण्डुलिपियाँ एकत्र कीं। उन्हें रामायण की सबसे प्राचीन पाण्डुलिपि नेपाल से प्राप्त हुई। इस आधार पर रामायण का एक सर्वशुद्ध संस्करण 1938 में प्रकाशित हुआ।
न्यूज़ देखो: भाषा और संस्कृति के सजग प्रहरी
आचार्य रघुवीर केवल भाषाविज्ञान के आचार्य नहीं थे, वे भारतीय संस्कृति के सजग प्रहरी थे। उनकी जयंती पर उन्हें स्मरण करना भारतीय भाषाओं की आत्मा को सहेजने का संकल्प है। उनका चिंतन आज भी भाषाई स्वाभिमान और सांस्कृतिक चेतना को दिशा देता है। हर खबर पर रहेगी हमारी नजर।
भाषा ही राष्ट्र की आत्मा है
आचार्य रघुवीर की स्मृति हमें यह याद दिलाती है कि भाषा ही राष्ट्र की आत्मा है—और उसकी रक्षा, विकास और समृद्धि हम सबकी साझा ज़िम्मेदारी है। उनकी जयंती पर यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी कि हम अपनी भाषाओं को सम्मान दें, उन्हें आधुनिक ज्ञान से जोड़ें और आने वाली पीढ़ियों के लिए सशक्त बनाएं।
Guest Author:
वरुण कुमार
तुलसी भवन, बिस्टुपुर





