
#लातेहार #दिव्यांग_सैनिक : सियाचिन में दोनों हाथ गंवाने के बाद भी पुनर्वास आदेश पांच वर्षों से लंबित
- सियाचिन हादसे में वीर सैनिक अरुण के दोनों हाथ गंवाए।
- 2020 में आवेदन के बावजूद आज तक पुनर्वास लागू नहीं।
- अहीरपुरवा में 5 एकड़ भूमि देने की अनुशंसा लंबित।
- दफ्तरों के चक्कर लगाने में 100% दिव्यांगता से असमर्थ।
- वर्ल्ड पैरालंपिक 2018 में गोल्ड व सिल्वर जीत चुके हैं।
सियाचिन ग्लेशियर पर देश की सेवा करते हुए दोनों हाथ खो देने वाले महुआड़ांड़ के वीर सैनिक अरुण केरकेट्टा वर्षों से प्रशासनिक उपेक्षा झेल रहे हैं। मूल रूप से विजयनगर के जरहाटोली निवासी अरुण बिहार रेजीमेंट की सेकेंड बटालियन में हवलदार पद पर कार्यरत थे। वर्ष 2012-13 के दौरान सियाचिन में हुए गंभीर हादसे में उनके दोनों हाथ कट गए और उन्हें सौ प्रतिशत स्थायी दिव्यांग घोषित किया गया। इसके बाद जीवनयापन और पुनर्वास के लिए उन्होंने दिसंबर 2020 में जिला सैनिक कल्याण पदाधिकारी के माध्यम से आवेदन किया, लेकिन पाँच वर्षों बाद भी उनके पक्ष में हुई अनुशंसा अब तक जमीन पर लागू नहीं हो सकी।
सियाचिन हादसे के बाद शुरू हुआ संघर्ष
अरुण केरकेट्टा ने 2007 में भारतीय थल सेना में भर्ती होकर अपनी सेवा शुरू की थी। देश की सीमाओं पर तैनाती के दौरान आए हादसे ने उनका पूरा जीवन बदल दिया। शरीर से दिव्यांग होने के बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। पुनर्वास के लिए सैनिक कल्याण कार्यालय ने अहीरपुरवा में पाँच एकड़ भूमि उनके नाम करने की अनुशंसा की थी। अनुमंडल और अंचल अधिकारी द्वारा स्थलीय जांच भी पूरी की गई, लेकिन फाइलें आगे नहीं बढ़ीं और आदेश फँसकर रह गया।
“पांच साल से केवल आश्वासन मिल रहा है”
अरुण ने कहा कि दोनों हाथ न होने से वे न तो दफ्तरों के चक्कर लगा सकते हैं और न ही मजदूरी कर सकते हैं। इसके बावजूद उन्हें केवल आश्वासन मिलता आ रहा है। जीवन चलाने की कठिनाइयों के बीच भी उन्होंने हार नहीं मानी और खेलों में अपना दमखम दिखाया।
गोल्ड-सिल्वर जीतकर बढ़ाया देश का मान
दिव्यांगता के बावजूद वर्ष 2018 में उन्होंने वर्ल्ड पैरालंपिक गेम्स में भाग लेकर 400 मीटर दौड़ में गोल्ड और 4×400 रिले में सिल्वर मेडल जीता। वर्ष 2019 में उन्हें साउथ अफ्रीका में होने वाली वर्ल्ड मिलिट्री गेम्स के लिए भी चुना गया, हालांकि कोरोना महामारी के कारण आयोजन स्थगित हो गया। उनकी इस अदम्य इच्छाशक्ति और साहस की सराहना करते हुए बिहार रेजीमेंट सेंटर के तत्कालीन ब्रिगेडियर और वरिष्ठ अधिकारियों ने भी उन्हें सम्मानित किया था।
पुनर्वास का इंतजार और प्रशासन की जिम्मेदारी
अरुण की स्थिति यह प्रश्न खड़ा करती है कि देश के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने वाले सैनिकों के पुनर्वास में इतनी देरी क्यों? सभी अनुशंसाएँ पूरी होने के बावजूद पाँच वर्षों तक आदेश का क्रियान्वयन न होना कई स्तरों की लापरवाही का संकेत है। दिव्यांग सैनिकों को समय पर सहयोग और पुनर्वास देना प्रशासन की मूल जिम्मेदारी है, जिसे पूरा किए बिना न्याय संभव नहीं।

न्यूज़ देखो: देश के वीरों के सम्मान में प्रशासन की तत्परता जरूरी
सियाचिन में हाथ गंवाने के बाद भी देश का गौरव बढ़ाने वाले अरुण केरकेट्टा जैसे सैनिक सम्मान और अधिकार दोनों के हकदार हैं। पाँच वर्षों से लंबित पुनर्वास इस बात का प्रतीक है कि व्यवस्था को अभी भी बहुत सुधार की जरूरत है। ऐसे मामलों में त्वरित कार्रवाई ही असली राष्ट्रसेवा होगी।
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हौसला, संघर्ष और सम्मान—इनकी कहानी सबको प्रेरित करती है
अरुण केरकेट्टा ने साबित किया है कि शरीर सीमित हो सकता है, लेकिन मनोबल नहीं। अब समाज और प्रशासन की जिम्मेदारी है कि ऐसे वीरों को उनका हक दिलाया जाए। आइए, उनकी कहानी साझा करें और न्याय की मांग को मजबूत बनाएं। अपनी राय कमेंट में लिखें और खबर को आगे भेजें ताकि जागरूकता फैले।





