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सावन में लातेहार के जंगल से थाली तक पहुंचा ‘प्राकृतिक पुटू मटन’, काला-सफेद पुटू भी बना स्वाद का सितारा

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#लातेहार #FoodTrend : जंगल से सीधे थाली तक — सावन में झारखंडियों की पहली पसंद बना देसी पुटू मटन
  • लातेहार के ग्रामीण क्षेत्रों में प्राकृतिक पुटू मटन की जबरदस्त मांग बढ़ी है।
  • 100 से 800 रुपये किलो तक बिकने वाला यह मटन स्वाद और सेहत दोनों में खास माना जा रहा है।
  • काले और सफेद पुटू (रुगड़ा) की भी जंगलों से शहरी बाजारों तक हो रही आपूर्ति।
  • आदिवासी और ग्रामीण समुदाय के लिए यह मटन बना आय का प्रमुख स्रोत
  • सावन में उपवास के साथ-साथ परंपरागत भोज में पुटू मटन की मांग चरम पर रहती है।
  • प्रशासनिक निगरानी से दूर रहकर पारंपरिक रूप से जारी है इसका व्यापार

जंगल की देन, थाली की शान: क्या है ‘प्राकृतिक पुटू मटन’

झारखंडी बोली में ‘पुटू’ का अर्थ जंगली सूअर से है, जिसे ग्रामीण क्षेत्रों में परंपरागत तरीकों से शिकार कर जंगलों से लाया जाता है। यह मटन इसलिए “प्राकृतिक मटन” कहलाता है क्योंकि न तो इसे फार्म हाउस में पाला जाता है और न ही इसमें कोई रासायनिक या हार्मोनिक दखल होता है। यह पूरी तरह देसी और शुद्ध मांस होता है, जो खासतौर पर बारिश के मौसम में अधिक पसंद किया जाता है।

स्वाद ऐसा कि भूल जाएं बाकी मटन

इस मटन का स्वाद आम बकरे या मुर्गे के मांस से कहीं अधिक उम्दा बताया जा रहा है। देसी मसालों में पकाया गया पुटू मटन अपनी खास खुशबू और गाढ़े झोल के लिए प्रसिद्ध है। कुछ बुजुर्ग इसे औषधीय गुणों से भरपूर भी मानते हैं। इसमें प्रोटीन की मात्रा अधिक और वसा की मात्रा कम होती है, जिससे यह न केवल स्वादिष्ट, बल्कि सेहतमंद विकल्प भी बन गया है।

लातेहार निवासी सुरेश साव ने कहा: “हर साल सावन में पुटू मटन जरूर लाते हैं। इसका स्वाद देसी है, शुद्ध है और सेहत के लिए भी फायदेमंद।”

रेखा देवी, बालूमाथ: “हम खास मसालों से इसका झोल बनाते हैं, जो चावल के साथ गजब लगता है। हमारे घर में बच्चे भी इसे बहुत पसंद करते हैं।”

कीमतें आसमान पर, मांग चरम पर

पहले जहां यह मटन 100-300 रुपये किलो में मिल जाता था, अब इसकी कीमत 800 रुपये किलो तक पहुँच चुकी है। इसके बावजूद बाजारों और हाटों में इसकी जोरदार मांग है। कई जगह तो लोग पुटू मटन के लिए पहले से बुकिंग कराते हैं, और कुछ खास विक्रेताओं के पास ही यह उपलब्ध होता है। यह तेजी से लोकप्रियता की ओर बढ़ रहा है।

आय का नया जरिया बने आदिवासी समुदाय

लातेहार के गारू, हेरहंज, बालूमाथ, महुआडांड़, चंदवा, मनिका जैसे क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी व वनवासी समुदाय के लिए यह मटन कमाई का बड़ा जरिया बन गया है। जंगलों से लाकर इसे शहरों व सड़क किनारे बेचने वाले ग्रामीणों को इसका अच्छा मुनाफा मिल रहा है, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति में उल्लेखनीय सुधार हो रहा है।

सावन में क्यों बढ़ जाती है मांग?

झारखंड में सावन का महीना धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण होता है। इस दौरान लोग एक ओर उपवास रखते हैं, तो दूसरी ओर विशेष भोज भी होता है। पुटू मटन को सावन के खास अवसरों पर पकाया और परोसा जाता है, जिससे इसकी मांग इस मौसम में और बढ़ जाती है। साथ ही बरसात में गरमा-गरम देसी मटन खाने का स्वाद भी लोगों को खूब लुभाता है

प्रशासनिक निगरानी से परे, परंपरा के सहारे

हालांकि यह व्यापार पूरी तरह अधिकृत नहीं है, फिर भी प्रशासन की निगाह अक्सर इससे दूर ही रहती है। कुछ जगहों पर कार्रवाई भी हुई है, लेकिन यह ग्रामीणों की पारंपरिक आजीविका का हिस्सा बन चुका है। यही कारण है कि यह कारोबार अब भी जारी है और ग्रामीण इसे न केवल परंपरा बल्कि सम्मानजनक रोजगार मान रहे हैं।

‘रुगड़ा’ यानी काले और सफेद पुटू की भी हो रही खूब बिक्री

लातेहार व आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में ‘रुगड़ा’ नामक फफूंदी प्रजाति के काले और सफेद पुटू की भी जोरदार मांग देखी जा रही है। बारिश में उगने वाला यह प्राकृतिक खाद्य पदार्थ प्रोटीन, फाइबर और मिनरल्स से भरपूर होता है। काला पुटू तीखे स्वाद के लिए प्रसिद्ध है, जबकि सफेद पुटू की खुशबू और सौम्यता सब्जियों के साथ बेहतर तालमेल बनाती है।

हेरहंज के एक दुकानदार ने बताया: “पिछले 15 दिनों में काले और सफेद पुटू दोनों की बिक्री दोगुनी हो चुकी है। यह अब सिर्फ गांवों तक सीमित नहीं रहा, शहरों से भी डिमांड आने लगी है।”

न्यूज़ देखो: जंगल की दौलत बना ग्रामीणों की ताकत

लातेहार का पुटू मटन और रुगड़ा, जहां एक ओर पारंपरिक स्वाद और संस्कृति का प्रतीक है, वहीं दूसरी ओर यह सामुदायिक आर्थिक विकास का नया मॉडल भी पेश कर रहा है। यह कहानी सिर्फ एक डिश की नहीं, बल्कि ग्रामीणों के आत्मनिर्भरता की मिसाल है। जब स्वाद, परंपरा और आजीविका एक साथ मिल जाएं — वहीं असली लोककथा जन्म लेती है।

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स्वाद और संस्कृति का संगम — बने सजग, बांटें पहचान

झारखंड की परंपराएं और व्यंजन ही हमारी असली पहचान हैं। जब हम इन्हें अपनाते और साझा करते हैं, तो एक मजबूत सांस्कृतिक श्रृंखला बनती है। आइए, आप भी अपना अनुभव कमेंट करें, इस लेख को अपने दोस्तों, परिवार और खाने के शौकीनों से शेयर करें, ताकि देसी स्वाद की यह परंपरा और मजबूत हो

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