Gumla

घाघरा प्रखंड के विमरला गांव में लकड़ी माफियाओं का तांडव उजागर, 15 पेड़ों की अनुमति लेकर काट दिए गए सैकड़ों इमारती पेड़

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#गुमला #अवैध_कटाई : ग्रामीणों की शिकायत के बावजूद वन विभाग की कार्रवाई संदिग्ध — वन विभाग की भूमिका पर गंभीर सवाल
  • विमरला गांव, घाघरा प्रखंड में लकड़ी माफियाओं ने 15 पेड़ों की अनुमति लेकर 300–500 इमारती पेड़ों की अवैध कटाई की।
  • ग्रामीणों की शिकायत के बावजूद वन विभाग की कार्रवाई संदिग्ध, विभाग की ईमानदारी पर सवाल।
  • प्रभारी फॉरेस्टर शेखर सिंह ने अनुमति समाप्त होने की बात स्वीकार की, लेकिन एक साल चालू कटाई पर जवाब स्पष्ट नहीं।
  • निरीक्षण सिर्फ मुख्य पथ तक सीमित, जंगल के भीतर जारी कटाई पर अधिकारियों की कोई पकड़ नहीं।
  • ग्रामीणों के मुताबिक माफिया दिन-रात पेड़ों को काटकर बाहर ले जाते हैं, प्रशासन बेखबर।

घाघरा प्रखंड के विमरला गांव के घने जंगलों में बड़े पैमाने पर अवैध कटाई का खुलासा होने के बाद क्षेत्र में आक्रोश फैल गया है। गुमला जिले के इन जंगलों में लकड़ी माफिया बीते एक वर्ष से सक्रिय हैं, और उन्होंने 15 पेड़ों की सरकारी अनुमति को ढाल बनाकर सैकड़ों मूल्यवान इमारती पेड़ों को काट डाला। ग्रामीणों का आरोप है कि यह पूरा खेल वन विभाग की उदासीनता या मिलीभगत के कारण चल सका। मुख्य सड़क से थोड़ा अंदर जाते ही पेड़ों के ठूंठ, ताजा कटे हुए लट्ठे और जंगल की उजड़ी हालत इस पूरे नेटवर्क की गवाही देते हैं।

कैसे हुआ अवैध कटाई का बड़ा खुलासा

गुमला के विभिन्न इलाकों में लंबे समय से लकड़ी माफियाओं के सक्रिय होने की शिकायतें आती रही हैं, लेकिन विमरला गांव में हुए इस ताजा मामले ने वन विभाग की भूमिका पर गंभीर सवाल उठा दिए हैं। ग्रामीणों ने बताया कि माफियाओं ने 15 पेड़ों को काटने की अनुमति ली, लेकिन उसकी आड़ में 15-15 पेड़ के समूहों में सैकड़ों पेड़ काटे गए। यह कटाई एक साल से चल रही थी, और अनुमति की अवधि समाप्त होने के बाद भी यह अवैध काम नहीं रुका।

ग्रामीणों की शिकायतें और विभाग की चुप्पी

ग्रामीणों ने वन विभाग को कई बार शिकायतें दीं, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। स्थानीय लोगों का कहना है कि विभाग सिर्फ कागजी कार्रवाई में जुटा रहा, जबकि जंगल दिन-रात उजड़ते रहे। ग्रामीणों ने इस दौरान कई बार ट्रैक्टर और माफियाओं के वाहनों को देखा, जिनमें कटे हुए लट्ठे लदे होते थे।

प्रभारी फॉरेस्टर की भूमिका पर सवाल, बयान भी उलझाने वाला

इस मामले पर जब प्रभारी फॉरेस्टर शेखर सिंह से सवाल किया गया, तो उन्होंने यह स्वीकार किया कि 15 पेड़ों की अनुमति एक वर्ष पहले दी गई थी। उन्होंने दावा किया कि अनुमति की अवधि खत्म हो चुकी है और अब कटाई नहीं हो रही है। लेकिन ग्रामीणों द्वारा लगातार कटाई की जा रही गतिविधियों के प्रमाण मिलने पर उनका बयान अधूरा और संदिग्ध लगता है।

प्रभारी फॉरेस्टर शेखर सिंह ने कहा: “अनुमति एक साल पहले दी गई थी, और कटाई बंद हो चुकी है।”

ग्रामीणों का कहना है कि 15 पेड़ तो अनुमति मिलने के तुरंत बाद ही काट दिए गए थे, उसके बाद भी कटाई जारी रहना विभाग की कार्यशैली पर गंभीर सवाल खड़े करता है। यदि अनुमति खत्म है, तो पिछले एक वर्ष में यह कटाई विभाग की नाक के नीचे कैसे चलती रही?

निरीक्षण सिर्फ मुख्य मार्ग तक सीमित, जंगल के भीतर कोई निगरानी नहीं

ग्रामीणों ने खुलकर आरोप लगाया है कि निरीक्षण अधिकारी जंगल के भीतर जाने से बचते हैं। वे सिर्फ मुख्य सड़क तक ही निरीक्षण सीमित रखते हैं, जबकि माफिया जंगल के घने हिस्सों में जाकर पेड़ों को काट रहे हैं। इस कारण अवैध कटाई को रोकने की कोई ठोस कोशिश नहीं दिखती।

माफिया का बढ़ता नेटवर्क और वन संपदा का नुकसान

कटाई का यह खेल पिछले एक साल से धीमी गति पर नहीं बल्कि बड़े पैमाने पर चल रहा है। पेड़ों की बुरी तरह कटाई ने न सिर्फ स्थानीय पर्यावरण को खतरे में डाल दिया है, बल्कि राज्य के ‘हरा-भरा झारखंड’ के मूल भाव को भी चोट पहुंचाई है। ग्रामीणों ने बताया कि कइयों ने रात में तेज आवाजों में गिरते बड़े पेड़ों की आवाजें भी सुनी हैं और कई बार भारी वाहनों से जंगल से निकलते अवैध लकड़ी को भी देखा है।

न्यूज़ देखो: वन विभाग की चुप्पी में पनप रहा जंगल विनाश

यह घटना स्पष्ट करती है कि जब सरकारी निगरानी कमजोर हो, तो माफिया तंत्र जंगलों को मिनटों में खाक कर सकता है। विमरला गांव का यह मामला सिर्फ एक उदाहरण नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की पोल खोलता है। वन विभाग की तटस्थता या सुस्ती जंगलों के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुकी है। अब आवश्यक है कि जिला प्रशासन तुरंत उच्चस्तरीय जांच कराए और जिम्मेदार अधिकारियों पर कार्रवाई सुनिश्चित करे।
हर खबर पर रहेगी हमारी नजर।

जंगल बचाना सिर्फ सरकार नहीं, समाज की भी जिम्मेदारी

बढ़ती अवैध कटाई हमें चेतावनी देती है कि पर्यावरण की रक्षा के प्रति अब और गंभीर होने की आवश्यकता है। यदि आज जंगलों को नहीं बचाया गया, तो आने वाली पीढ़ियों को हवा, पानी और प्राकृतिक संसाधनों का भारी संकट झेलना पड़ेगा। ग्रामीणों की सतर्कता और आवाजें ही अब जंगलों की असली ताकत बन सकती हैं।
अपनी राय कमेंट करें, इस खबर को साझा करें और जंगल बचाओ अभियान को आवाज़ दें ताकि ये मुद्दे सिर्फ कागज़ों में नहीं, ज़मीन पर भी बदलाव ला सकें।

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