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वंदे मातरम् और कांग्रेस: राष्ट्रीय चेतना से राष्ट्रगीत तक की ऐतिहासिक यात्रा

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#भारत #स्वतंत्रता_संग्राम : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में वंदे मातरम् गीत और कांग्रेस की ऐतिहासिक भूमिका
  • वंदे मातरम् गीत ने भारतीय जनमानस की सुप्त चेतना को जगाया और स्वतंत्रता संग्राम की लौ प्रज्ज्वलित की।
  • बंकिम चंद्र चटर्जी ने 1875 में यह गीत रचा, जो 1881 के उपन्यास ‘आनंदमठ’ में शामिल हुआ।
  • 1886 में इसे कविवर हेमचंद्र ने कोलकाता अधिवेशन में गाया और रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 1896 में कांग्रेस के 12वें अधिवेशन में प्रस्तुत किया।
  • 1905 के बंगाल विभाजन के विरुद्ध आंदोलन में यह गीत सुरेंद्रनाथ बनर्जी, बिपिन चंद्र पाल, तिलक, लाला लाजपत राय जैसे नेताओं के नेतृत्व में गाया गया।
  • संविधान सभा ने 24 जनवरी 1950 को इसे राष्ट्रगीत का दर्जा दिया।
  • कांग्रेस ने इसे स्वतंत्रता आंदोलन और जन-जन तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की कहानी केवल घटनाओं का क्रम नहीं, बल्कि उन भावनाओं की महागाथा है जिन्होंने पराधीन देश को स्वतंत्रता का सपना दिखाया। इन भावनाओं के केंद्र में वंदे मातरम् गीत रहा, जिसने जनमानस की चेतना को जागृत किया और विदेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष की आग भड़की। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इसे राष्ट्रीय आत्मा का प्रतीक बनाकर ऐतिहासिक भूमिका निभाई। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान यह गीत नेताओं और आम जनता दोनों के लिए प्रेरणा का स्रोत रहा और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इसे राष्ट्रगीत का दर्जा मिला।

वंदे मातरम् का रचनात्मक और राजनीतिक इतिहास

बंकिम चंद्र चटर्जी ने 1875 में वंदे मातरम् गीत रचा, जो 1881 में उनके उपन्यास ‘आनंदमठ’ में शामिल हुआ। 1886 में कविवर हेमचंद्र ने इसे कोलकाता अधिवेशन में गाया। इसके बाद 1896 में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कांग्रेस के 12वें अधिवेशन में इसे प्रस्तुत किया। कांग्रेस की स्थापना के ठीक अगले वर्ष से यह गीत राष्ट्रीय आकांक्षाओं का प्रतीक बन गया।

बंगाल विभाजन और आंदोलन

1905 के बंगाल विभाजन के खिलाफ आंदोलन में सुरेंद्रनाथ बनर्जी, बिपिन चंद्र पाल, तिलक, लाला लाजपत राय ने इस गीत का खुले तौर पर प्रतिकार किया। 16 अक्टूबर 1905 को टैगोर के नेतृत्व में “एकता दिवस” पर इसे सामूहिक रूप से गाया गया, जो लाखों भारतीयों के दिलों में घर कर गया।

कांग्रेस अधिवेशन और स्वतंत्रता आंदोलन

कांग्रेस अधिवेशनों में वंदे मातरम् राष्ट्रीय संकल्प का उद्घोष बन गया। 1921 के असहयोग आंदोलन में हजारों सत्याग्रही इसे नारा लगाकर जेल गए। अंग्रेजों को इसके गान से भय था, इसलिए इसे अपराध घोषित किया गया और लाठियां तथा गोलियां चलाई गईं। किंतु आवाजें रुकने का नाम नहीं लिया। नेहरू, गांधी, पटेल, आजाद ने इसे स्वतंत्रता का नैतिक आधार माना। 1929 में नेहरू ने अध्यक्षीय भाषणों का अंत जयघोष के साथ किया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में इसे प्रथम गीत के रूप में निर्देशित किया गया।

स्वतंत्रता के बाद

संविधान सभा ने 24 जनवरी 1950 को वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत का दर्जा दिया। 1955 में नेहरू ने सरकारी कार्यक्रमों में इसे प्रारंभिक गीत बताया। कांग्रेस ने इसे जन-जन तक पहुँचाया और आंदोलन का केंद्र बनाया। बंगाल से उत्तर और दक्षिण भारत तक यह साझा पहचान बन गई। स्वतंत्रता के बाद यह गीत राष्ट्रीय अनुष्ठानों की धड़कन बना।

वंदे मातरम्: सांस्कृतिक और राष्ट्रीय प्रतीक

यह गीत केवल स्वतंत्रता का प्रतीक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक आत्मविश्वास का प्रतीक भी रहा। इसने सामान्य जनता को संगठित राष्ट्र का अनुभव कराया और विविधता में एकता की भावना पैदा की। आज भी यह स्वतंत्रता के जागरण की उजली ध्वनि है, अतीत की स्मृति और भविष्य की प्रेरणा। कांग्रेस की साहसी भूमिका ने इसे धड़कता हृदय बनाया।

हमारी चेतना का प्रतीक – वंदे मातरम्

वंदे मातरम् केवल गीत नहीं, बल्कि हमारे राष्ट्रीय गौरव और चेतना का प्रतीक है। यह हमें स्वतंत्रता आंदोलन की कहानी याद दिलाता है और आज के नागरिकों के लिए जिम्मेदारी का संदेश देता है। हमें इसे सम्मान देना चाहिए और आने वाली पीढ़ियों तक इसकी प्रेरणा पहुँचानी चाहिए। इस गीत की ध्वनि में छुपी ताकत हमें एकजुट करती है और देशभक्ति की भावना को प्रबल बनाती है। इस संदेश को साझा करें, अपने विचार कमेंट में लिखें और राष्ट्रगीत के महत्व को अपने समाज तक पहुँचाएँ।

साभार: हृदयानंद मिश्र (अधिवक्ता, झारखंड के वरिष्ठ कांग्रेस नेता एवं हिंदू धार्मिक न्यास बोर्ड सदस्य)
यह लेखक के निजी विचार हैं

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