
#गढ़वा #जलसंकट : कनहर लिंक योजना पर कार्रवाई न होने से स्थानीय लोग चिंतित।
- पनघटवा बांध का निर्माण 1980-85 में हुआ, आज पूरी तरह आधुनिकीकरण रहित।
- सिंचाई नहरों में पानी की कमी—पेयजल टैंकों ने संकट बढ़ाया।
- शशि भूषण मेहता ने पर्यटन विकास व राजस्व बढ़ोतरी पर जोर दिया।
- 7-8 किलोमीटर दूर कनहर नदी से लिंकिंग को स्थायी समाधान बताया गया।
- परियोजना फाइलों में अटकी—स्थानीय लोग सरकार की इच्छाशक्ति की कमी से नाराज़।
गढ़वा के पनघटवा बांध की खस्ताहाली पिछले चार दशकों से अनदेखी का परिणाम है। 1980-85 में निर्मित यह बांध सिंचाई, पेयजल और पर्यटन—तीनों का आधार था, लेकिन रखरखाव के अभाव ने इसकी क्षमता को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। पेयजल आपूर्ति के लिए नए टैंक लगने से किसानों को सिंचाई जल की कमी का डर सताने लगा है, जिससे विवाद की आशंका बढ़ रही है। स्थानीय ग्रामीणों और विशेषज्ञों ने कनहर नदी लिंक योजना को एकमात्र स्थायी समाधान बताया है, लेकिन यह परियोजना अब तक सरकारी फाइलों में पड़ी हुई है। यही चिंता अब ग्रामीणों को सड़क पर उतरने को मजबूर कर रही है।
पनघटवा बांध की 40 साल की कहानी: उपेक्षा की परतें उजागर
गढ़वा जिले का पनघटवा बांध शुरुआत से ही किसानों के लिए राहत का माध्यम रहा है। इसकी दो मुख्य नहरें चार दशकों तक कृषि का आधार बनी रहीं, लेकिन इस अवधि में नहरों की मरम्मत, बांध की मजबूती और जल संचयन क्षमता पर कोई बड़ा कार्य नहीं किया गया। जल जीवन मिशन के अंतर्गत पेयजल टैंकों के निर्माण के बाद बांध से जल निकासी की दिशा बदली और किसानों में असंतोष बढ़ने लगा।
पेयजल बनाम सिंचाई: बढ़ता संघर्ष
किसानों का कहना है कि पेयजल टैंकों के लिए जल खींचे जाने से नहरों तक पानी पहुंचना कम हो गया है। जिन गांवों की खेती इस बांध पर निर्भर थी, अब वे सूखे की आशंका से घिरे हैं। स्थानीय लोग मानते हैं कि यदि यही स्थिति बनी रही तो पनघटवा बांध आने वाले वर्षों में सिंचाई–पेयजल संघर्ष का सबसे बड़ा केंद्र बन जाएगा।
पर्यटन और राजस्व का नुकसान: अनछुआ अवसर
स्थानीय ग्रामीण शशि भूषण मेहता ने कई बार प्रशासन को पत्र लिखकर ध्यान दिलाया कि पनघटवा बांध एक संभावित बड़ा पर्यटन आकर्षण बन सकता है।
उन्होंने कहा:
शशि भूषण मेहता ने कहा: “यदि सरकार सुंदरीकरण और बुनियादी सुधार कर दे, तो यह स्थान जिले के लिए लाखों का राजस्व पैदा कर सकता है। लेकिन आज सरकारी उदासीनता के कारण इसकी संभावनाएँ धूल खा रही हैं।”
रोजगार, पर्यटन, और स्थानीय अर्थव्यवस्था—तीनों में सुधार की राह इस बांध से होकर गुजरती है, पर अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया।
समाधान का रास्ता: कनहर लिंक योजना क्यों है अनिवार्य?
कनहर नदी, जो बांध से लगभग 7–8 किलोमीटर दूर बहती है, बांध की जल उपलब्धता को स्थायी रूप से सुनिश्चित कर सकती है।
विशेषज्ञ और ग्रामीण एक स्वर में मानते हैं कि यह जल स्रोत जोड़ने से:
- सिंचाई जल समस्या स्थायी रूप से समाप्त होगी।
- पेयजल–सिंचाई का टकराव समाप्त हो जाएगा।
- पूरे क्षेत्र में कृषि उत्पादन बढ़ेगा।
- बांध के पर्यटन और पारिस्थितिक क्षमता का विस्तार होगा।
फिर भी यह योजना वर्षों से फाइलों में अटकी है। यही वजह है कि लोग मानते हैं कि समस्या तकनीकी नहीं, बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी से जुड़ी है।
विकास की राह में बाधाएँ: प्रशासनिक निष्क्रियता उजागर
40 वर्षों में इस बांध से न तो राजस्व बढ़ा, न ही सिंचाई क्षमता।
स्थानीय लोगों ने कई बार आयोगों, जिला प्रशासन और जल संसाधन विभाग को ज्ञापन सौंपे, लेकिन मैदान पर परिवर्तन प्रतीक्षित है। चुनावी मौसम में नेताओं के बड़े-बड़े वादे भी अब खाली लगने लगे हैं।
ग्रामीणों के सवाल
- आखिर कनहर लिंक योजना को राष्ट्रीय महत्व की परियोजना क्यों नहीं बनाया गया?
- बांध की मरम्मत और नहरों के पुनरोद्धार का रोडमैप कहाँ है?
- किसानों की चिंता पर अब तक कोई लिखित नीति क्यों नहीं बनी?
इन सवालों के जवाब प्रशासन के पास नहीं हैं, और यही खामोशी अब आक्रोश में बदल रही है।
पनघटवा बांध: भविष्य के संकट का संकेत
यदि कनहर लिंक योजना तत्काल शुरू न हुई तो आने वाले वर्षों में पनघटवा बांध सिर्फ एक ढांचा बनकर रह जाएगा। गढ़वा जिले में:
- खेती,
- पेयजल,
- पर्यटन,
- स्थानीय रोजगार,
सभी पर इसका दुष्प्रभाव पड़ेगा। ग्रामीणों का मानना है कि अब देरी का हर दिन नुकसान का नया अध्याय जोड़ रहा है।

न्यूज़ देखो: विकास की अनदेखी से जल संकट गहराता
यह कहानी सिर्फ पनघटवा बांध की नहीं, बल्कि झारखंड के जल प्रबंधन मॉडल की विफलता का बड़ा उदाहरण है। सरकार यदि 40 वर्षों में एक महत्वपूर्ण संसाधन को सहेज नहीं सकी, तो यह नीति-निर्माण में गंभीर खामियों को उजागर करता है। अब प्रशासन पर यह जिम्मेदारी है कि वह कनहर लिंक योजना को तत्काल मंजूरी दे। हर खबर पर रहेगी हमारी नजर।
अब जागने का समय: जल संसाधनों की रक्षा जनता की सामूहिक जिम्मेदारी
पनघटवा बांध की लड़ाई सिर्फ ग्रामीणों की नहीं—यह हर नागरिक की लड़ाई है, जो पेयजल और सिंचाई दोनों पर निर्भर है। जब संसाधनों की उपेक्षा होती है, तो समाज का भविष्य प्रभावित होता है। अब समय है कि लोग स्थानीय जनप्रतिनिधियों से जवाब मांगें, योजनाओं की प्रगति पर निगरानी रखें और जल परियोजनाओं को चुनावी मुद्दा बनाएं।
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